मन का तपन - MANN KA TAPAN
कवि : हुलेश्वर प्रसाद जोशी
वो जो मेरे मन का तपन बुझाने लगी।
मिट जाए ऐसी प्यास “दिल में” जगाने लगी।।
पाँव की
बैरी पैरी को छनकाने लगी।
कोई बावली बनी है
तू बनाने लगी।
सागर की गहराई अपार में
समाँ जाने लगी।
वो जो मेरे मन का तपन
बुझाने लगी।
लगन ऐसी है ‘न लगी’
जैसे लगाने लगी।
मेरे मन को भी वो ‘सच में’
भाने लगी।
पतरेंगी है मेरी सजनी
उड़ जाने लगी।
वो जो मेरे मन का तपन बुझाने लगी।
लगी लगन रे
कन्हैया से थी
लगाने लगी।
मेरे हृदय में
“जलन”
वो जलाने लगी।
माथ सिंदूर वो अब
मोर मुकुट बंधाने लगी।
वो जो मेरे मन का तपन
बुझाने लगी।
सँवर-सँवर के
वो कन्या
मन को मेरे भाने लगी।
हाय रे !
दिल के करीब
अति आने लगी।
कजरेली नयन में “वो”
काजर लगाने लगी ।
वो जो मेरे मन का तपन बुझाने लगी।
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# काव्य संग्रह "लिख दूँ क्या ?
Poetry Collection "LIKH DUN KYA ?
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