आँख मूंद कर
कैसे करलूँ “भरोसा”
जो मुझको बता रही हो।
वर्षों से था मैं पीछे पड़ा
आज यूँ ही क्यों ?
बुला रही हो।
प्रलोभन देकर मुझे
अब ऐसे सता रही हो।
काम चलाने के लिए “कुल्हाड़ी से”
काम मुझमें जगा रही हो ।।
दिन गुजरा जा रहा है
साँझ ढ़लने लगी है ।
यूँ ही आँखें सूरज की
आज चन्दा भी प्यासी
जैसे कुएँ में डूबी जा
रही हो।
प्यासा था, मैं भी ‘पागल’
तुम पायल बजा रही हो।
काम चलाने के लिए
“कुल्हाड़ी से”
काम मुझमें जगा रही हो।।
पास बुलाने के बहाने
तुम जिन्दगी मँगा रही हो।
सात फेरों के
सुंदर सपनें सजा रही हो।
तुम भी किसी के लिए बनी हो
“फिर क्यों ?”
काम चलाने के लिए “कुल्हाड़ी से”
काम मुझमें जगा रही हो।।
आज ही
जाल फेंकी हो
जैसे सुहागा सजा रही हो।
मुझे भी एक पल के लिए लगा
“मुझे”
दिल से बुला रही हो।
ऐसे कातिलाना मुस्कान बिखेर
“क्यों ?”
नाटक दिखा रही हो।
काम चलाने के लिए
“कुल्हाड़ी से”
काम मुझमें जगा रही हो।।
माँग लेता अगर अभी
एक प्यारी सी ‘मीठी’
मुस्कान क्यों? बिखेर रही हो।
आँखें बंद हो जाएँगी
ऐसा क्यों ?
नजरें झुका रही हो।
कातिल तो तुम हो नहीं
पर क्यों ?
मुझे उकसा रही हो।
काम चलाने के लिए “कुल्हाड़ी से”
काम मुझमें जगा रही हो।।
# काव्य संग्रह "लिख दूँ क्या ?
Poetry Collection "LIKH DUN KYA ?
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