तुम तोड़ जाओ भरोसा,
इतना हक़ दे गया था।
हर बार खाने के बाद,
आज फिर कर गया था।
कब तक तुम्हें बेहतर समझने की भूल करूँ?
बताओ,
बताओ;
बताओ न क्यों ये कर गया था?
तुम तोड़ जाओ भरोसा........
इतना नासमझ क्यों मैं हो गया था।
कह दो न,
क्या मैं फिर गया था?
भूलने की कोशिशें करूँ,
तो मुश्किलें न होंगी।
भूलने की कोशिशें करूँ,
तो मुश्किलें न होंगी।
क्योंकि दही के भोरहा में कप्सा को लील गया था।।
तुम तोड़ जाओ भरोसा........
कलियाँ बिछाए राहों पर ताकता रहा मैं।
कलियाँ बिछाए राहों पर ताकता रहा मैं।
इंतिजार,
इंतिजार;
बेहद इंतिजार करता रहा मैं।
फ़िर भी तुम नहीं आईं,
क्यों....?
बताओ,
बताओ;
बताओ न ये क्या कर रहा मैं?
तुम तोड़ जाओ भरोसा........
जानता हूँ, "हक़ नहीं मुझे" ये हक़ीक़त है।
जानता हूँ, "हक़ नहीं मुझे" ये हक़ीक़त है।
तुम ग़ैर हो चुकी हो,
ये हक़ीक़त है।
बताओ...
पर क्यों विश्वास दिलाती हो?
तुम्हारे करने से ही हुआ है आज,
मेरी फुल्ली फ़जीहत है।
मेरी फुल्ली फ़जीहत है।
तुम तोड़ जाओ भरोसा........
नशीहतें दूँ क्या मुझे?
नशीहतें दूँ क्या मुझे?
कि,
भरोसेमंद कोई भी नहीं इस जहाँ में
अब कभी फ़जीहत मत कराना।
सब कोई मुझसा ही स्वार्थी हैं।
सब कोई मुझसा ही स्वार्थी हैं।
जाओ गौठान में गोबर बीनना या भैस चराना।
तुम तोड़ जाओ भरोसा........
बेहतरीन कविता
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